नंगे पैर चलने को आतुर हूँ।
“नंगे पैर”

भरी दोपहरी में निकल पड़ा हूँ।
ख्वाब लिए फिर चल पड़ा हूँ।
हाथो में किताबो का बण्डल पकडे हुये।
नंगे पैर चलने को आतुर हुआ हूँ।
रखकर कदम , जमीन पे फिर।
डर से भी हिल गया हूँ।
चुभते हुये कंकड़ों के किनारे।
कर रहे है ,मन भंगुर।
बेबस था ,लाचार था ,चलने को फिर भी तैयार था।
देखकर ,मंजिल की चमक ,भुला दिए दुःख सारे।
कदम बढ़ाने को ,फिर से तैयार हूँ।
अब तो फिर ,नंगे पैर चलने को आतुर हूँ
डगमग डगमग ,कभी पैर उठाकर।
एक पैर पे ,कभी कभी चलकर।
धीरे धीरे ,चलता हुआ ,बड़ रहा हुआ हूँ।
सपनो की आहट को सुनकर,फिर बैचैन हो पड़ा हूँ।
आज तो नंगे पैर ,चलने को आतुर हुआ हूँ।
चिलमिलाती धूप से भी ,परेशान नहीं हूँ।
सहारा लेकर, हाथ का सिर पे।
फिर से कदम बड़ा पड़ा हूँ।
मन की खुशी को जी जी कर फिर।
नंगे पैर चलने को आतुर हुआ हूँ।
नहीं मिली नहीं बची ,पैरो की ठोकर अब थक पड़ी।
याद कर करके ,वो पल भी मुस्करा रहा हूँ।
मन को फिर समझाकर ,आगे बड़ रहा हूँ
फिर से नंगे पैर चलने को आतुर हुआ हूँ।
-प्रेम
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