ठिठुरती सर्दिया : जकड़ती अंगुलिया

ठिठुरती सर्दिया

लम्बी सी चुपी , लिए हुए आती है
बहती पवन की , धारा
सुन्न बदन कर जाती है।
ओढ़े हुए कम्बल की गरमी ,से उठकर
स्कूल जाने का मन रहता है।
देखकर कोहरे से बादल ,
तन बैचेन हो लेता है।
बर्फ जैसे पानी को छूते ही ,
ठिठुरन से डर लेता है
पानी के छींटे भर से ,अंग सुन्न हो लेता है।
भागते हुए पेरो के कदम।
ले जाते ,दूर आंग के आँचल में।
सेंककर फिर बदन आग से
हो जाता तैयार है।
ठिठुरन भरी हवा का झोंका
खड़ा कर देता ,रोम रोम छूकर
दे जाता कंपकपी पल भर में
हाथो में लिए किताबो का ढेर
रुक रुक कर चलता रहता।
ठिठुरन अंगिआय में फिर ,
शीत अधर कर जाता
अंगुलिया। पैरो की सुन्न पड़ीं है कब से
चपल्लो से बाहर देखकर
आस लगाए रहती है
ढकने को उन्हें ,बार बार कहती है
दर्द नहीं कम होता तब भी
ठिठुरकर, फिर छुप लेती
रुक रूक ,आग जलाकर फिर
अंगुलिया सेंक लेता है।
बिना रुके फिर से कदम ,आगे बढ़ाये चलता है।
हवा के तेज झोंको से फिर
वस्त्र संभाले रखता है
आस लगी रहती ,तन को ठिठुरन
गर्म करने को बेबस।
मन बड़ा उदास था ,कुछ नहीं कहता
सर्दी के अनगिनत प्रहार से ,डरकर सहम लेता
चंचल हो लेता ,खुद निडर हो लेता
देखकर तन वस्त्र को ,पास खड़ा कर लेता
सर्दी को फिर से दूर ,भगाने को डंटा रहता
दौड़ -दौड़कर फिर से ,रुक जाता है।
आग जलाकर हाथो को फिर सहलाता है।
सोचकर फिर शब्द प्रहार ,
ये मन नहीं कमजोर पड़ने वाला।
तेज ठिठुरन के प्रहार से नहीं ,डरने वाला
आज नहीं तन पे वस्त्र गर्म
कल आ जायेगा फिर नरम
संघर्ष, कपकंपी का दौर लिखता हूँ
फिर से मन को बहलाता हूँ।
पहुंचकर स्कूल के दरवाजे पे ,
सहज अपने को करता हूँ।
अकड़ी हुई अंगुलियों से फिर
कहानी लिखता हूँ।
संभल के शब्दों की अटपटाहट ,
फिर से सटीक करता हूँ।
आज फिर बचपन में ,
ठिठुरन ,की कहानी लिखता हूँ।

-Prem

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